डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’
‘‘मैंने अपनों की ओर से दिये गये दर्द और जख्मों को झेला है| सच तो यह है कि मैं पल प्रतिपल झेलते रहने को
विवश हूँ|’’
विवश हूँ|’’
यह आज बहुत सारे लोगों की वैयक्तिक हकीकत है, लेकिन यह कोई नयी या बहुत बड़ी बात नहीं हैं| करोड़ों लोगों को इस प्रकार के अपनों के दिये दर्द या इससे भी भयंकर दर्द झेलने पड़ते हैं| इसीलिये तो इस प्रकार के दर्दमन्दों को कहीं, किसी अदालत में न्याय नहीं मिलता है| कोई मानव अधिकार संगठन ऐसे लोगों के दु:ख-तकलीफों में मदद करने आगे नहीं आता है| बल्कि कड़वा सच तो यह है कि आपसी रिश्तों, रक्त-सम्बन्धों और सामाजिक बन्धनों के कारण मिलने वाले दु:ख, तकलीफ और जख्मों से निजात पाने के लिये प्रयास करने वालों को समाज, सामाजिक संगठनों और मानव अधिकारों की रक्षा की बात करने वालों की आलोचना झेलने को भी विवश होना पड़ता है| ऐसे में सबके अपने-अपने दर्द होते हैं|
लोग अपने व्यक्तिगत दर्दों के कारण इतने आहत होते हैं कि उन्हें अपने दु:ख-तकलीफों के अलावा कुछ भी नहीं दिखाई देता| ऐसे व्यक्तियों के दिल से बुरा हाल किसका होगा, जिनको रात्री में ही नहीं, बल्कि दिन में भी रोज-रोज नये-नये सपने तो आते हैं, लेकिन उन्हें अपने सपनों को हकीकत में बदलने की इजाजत देना तो दूर, उन्हें यह समाज अपने सपनों की सार्वजनिक रूप से चर्चा तक करने की इजाजत नहीं देता! ऐसे दु:खी, व्यथित और अवसाद से भरे और अन्दर ही अन्दर कराहते लोगों से लबरेज (भरे) इस समाज में हम आम लोगों से राष्ट्रहित, जनहित, समाजहित और मानवता के हित में कार्य करने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं| इसके उपरान्त भी लोग राष्ट्र या समाज के लिये चिन्तित हैं, यह अपने आप में आश्चर्यजनक है|-14.05.2011
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