जानिए-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान के मुख्य संस्थापक और राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश' को!
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मेरा परिचय :
नाम : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश', आस्तिक हिन्दू! तीसरी कक्षा के बाद पढाई छूटी! बाद में नियमित पढाई केवल 04 वर्ष! जीवन के 07 वर्ष मेहनत-मजदूरी जंगलों व खेतों में, 04 वर्ष 02 माह 26 दिन 04 जेलों में गुजारे और 20 वर्ष 09 माह 05 दिन दो रेलों में सेवा के बाद स्वैच्छिक सेवानिवृति! जेल के दौरान-कई सौ पुस्तकों का अध्ययन, कविता लेखन किया एवं जेल में ही ग्रेज्युएशन डिग्री पूर्ण की! हिन्दू धर्म, जाति, वर्ण, समाज, कानून, अर्थ व्यवस्था, आतंकवाद, राजनीति, कानून, संविधान, स्वास्थ्य, मानव व्यवहार, मानव मनोविज्ञान, दाम्पत्य, आध्यात्म सहित अनेकानेक विषयों पर सतत लेखन और चिन्तन! विश्‍लेषक, टिप्पणीकार, कवि और शोधार्थी! छोटे बच्चों, कमजोर व दमित वर्गों, आदिवासियों और मजबूर औरतों के शोषण, उत्पीड़न तथा अभावमय जीवन के विभिन्न पहलुओं पर अध्ययनरत! जयपुर से प्रकाशित हिन्दी पाक्षिक समाचार-पत्र "प्रेसपालिका" का सम्पादक! 1993 में स्थापित और वर्तमान में देश के 18 राज्यों में सेवारत राष्ट्रीय संगठन ‘भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान’ (बास-BAAS) का मुख्य संस्थापक तथा राष्ट्रीय अध्यक्ष! जिसमें 12.01.2012 तक 5244 आजीवन सदस्य सेवारत हैं!
E-mail : baasoffice@gmail.com, Ph. 0141-2222225, Mob. : 098285-02666
मेरी मान्यताएँ : 1-संविधान, कानून, न्याय व्यवस्था तथा प्रशासनिक असफलता और मनमानी की अनदेखी तथा जन्मजातीय विभेद के कारण भ्रष्टाचार एवं अत्याचार पनपा और बढ़ा है! 2-भारत, भारतीयता और हिन्दू समाज के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती : (क) अपराधियों व शोषकों के तिरस्कार के बजाय, उनका महिमा मंडन तथा (ख) कदम-कदम पर ढोंग को मान्यता! 3-आरक्षित वर्ग-(अनुसूचित जन जाति-आदिवासी वर्ग) का होकर भी वर्तमान आरक्षण व्यवस्था से पूर्णत: असन्तुष्ट! क्योंकि यह आरक्षित वर्गों को पंगु बनाती है और यह सामाजिक वैमनस्यता को बढ़ावा दे रही है! लेकिन आरक्षण समाप्त करने से हालत सुधरने के बजाय बिगड़ेंगे! 4-मनमानी और नाइंसाफी के खिलाफ संगठित जनांदोलन की जरूरत! जिसके तीन मूल सूत्र हैं : (1) एक साथ आना शुरुआत है| (2) एक साथ रहना प्रगति है! और (3) एक साथ काम करना सफलता है| 5-सबसे ज्यादा जरूरी बदलाव : (1) "अपने आपको बदलो! दुनिया बदल जायेगी!" (2) भय और अज्ञान की नींद से जागो! उठो और संगठित होकर बोलो! न्याय जरूर मिलेगा| 6-मेरा सन्देश : आखिर कब तक सिसिकते रहोगे? साहस है तो सच कहो, क्योंकि बोलोगे नहीं तो कोई सुनेगा कैसे? 7-मेरा मकसद : मकसद मेरा साफ! सभी के साथ इंसाफ!
विभिन्न विषयों पर मेरे लेख/कुछ कविताएँ जो इंटरनेट/समाचार-पत्रों में चर्चा का विषय बने! शायद आपको भी पसन्द आयें!
यदि आपका कोई अपना या परिचित पीलिया रोग से पीड़ित है तो इसे हलके से नहीं लें, क्योंकि पीलिया इतन घातक है कि रोगी की मौत भी हो सकती है! इसमें आयुर्वेद और होम्योपैथी का उपचार अधिक कारगर है! हम पीलिया की दवाई मुफ्त में देते हैं! सम्पर्क करें : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 0141-2222225, 98285-02666

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Sunday, December 30, 2012

बलात्कार : स्थितियां कैसे बदलेंगी?

सच यह है कि हमारे देश में कानून बनाने, कानून को लागू करने और कोर्ट से निर्णय या आदेश या न्याय या सजा मिलने के बाद उनका क्रियान्वयन करवाने की जिम्मेदारी जिन लोक सेवकों या जिन जनप्रतिनिधियों के कंधों पर डाली गयी है, उनमें से किसी से भी भारत का कानून इस बात की अपेक्षा नहीं करता कि उन्हें-संविधान, न्यायशास्त्र, प्राकृतिक न्याय, मानवाधिकार, मानव व्यवहार, दण्ड विधान, साक्ष्य विधि, धर्मविधि, समाज शास्त्र, अपराध शास्त्र, मानव मनोविज्ञान आदि विषयों का ज्ञान होना ही चाहिये। ऐसे में देश के लोगों को न्याय या इंसाफ कैसे हासिल हो सकता है? विशेषकर तब, जबकि शैशव काल से ही हमारा समाजीकरण एक भेदभावमूलक और अमानवीय सिद्धान्तों की पोषक सामाजिक (कु) व्यवस्था में होता रहा है??? अत: यदि हम सच में चाहते हैं कि हम में से किसी की भी बहन-बेटी, माता और हर एक स्त्री की इज्जत सुरक्षित रहे तो हमें जहॉं एक और विरासत में मिली कुसंस्कृति के संस्कारों से हमेशा को मुक्ति पाने के लिये कड़े कदम उठाने होंगे, वहीं दूसरी ओर देश का संचालन योग्य, पात्र और संवेदनशील लोगों के हाथों में देने की कड़ी और जनोन्मुखी संवैधानिक व्यवस्था बनवाने और अपनाने के लिये काम करना होगा। जिसके लिये अनेक मोर्चों पर सतत और लम्बे संघर्ष की जरूरत है। हाँ तब तक के लिए हमेशा की भांति हम कुछ अंतरिम सुधार करके जरूर खुश हो सकते हैं!

Sunday, December 23, 2012

बलात्कारी खुद को निर्दोष सिद्ध करे, ऐसा कानून बनाने की मांग पागलपन है!

प्रत्येक क्षेत्र में प्रक्रियात्मक सुधार के लिये हर स्तर पर आमूलचूल परिवर्तन के लिये मन से तैयार होना होगा और देश में कानून बनाने से लेकर कानूनों को लागू करने, दोषी को सजा देने तथा सजा भुगताने तक की सम्पूर्ण प्रक्रिया को न केवल पूरी तरह से पारदर्शी ही बनाना होगा, बल्कि हर एक स्तर पर पुख्ता, सच्ची और समर्पित लोगों की भागीदारी से निगरानी की संवेदनशील व्यवस्था भी करनी होगी। जिससे किसी निर्दोष को किसी भी सूरत में सजा नहीं होने पाए और किसी भी सूरत में किसी भी दोषी को बक्शा नहीं जा सके! इसके साथ-साथ 21वीं सदी में तेजी बदलते समय के आचार-विचारों, पश्चिम के प्रभावों को और देश पर अंगरेजी थोपे जाने के कुपरिणामों को ध्यान में रखते हुए, पुरातनपंथी कही जाने वाली और अव्यावहारिक हो चुकी हमारी सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक परम्पराओं, प्रथाओं और रीतियों से समाज को क्रमश: मुक्त करने की दिशा में केवल कुछ दिन नहीं, बल्कि दशकों तक लगातार कार्य करना होगा। तब ही केवल बलात्कार ही नहीं, बल्कि हर प्रकार के अन्याय और अपराध से पीड़ितों को संरक्षण प्रदान किया जा सकेगा।

Friday, December 21, 2012

बलात्कार से निजात कैसे?

एक पुलिस का जवान कानून व्यवस्था का हिस्सा बनने के लिये पुलिस में भर्ती होता है, लेकिन पुलिस अधीक्षक उसे अपने घर पर अपनी और अपने परिवार की चाकरी में तैनात कर देता है। (जो अपने आप में आपराधिक न्यासभंग  का अपराध है और इसकी सजा उम्र कैद है) जहॉं उसे केवल घरेलु कार्य करने होते हैं-ऐसा नहीं है, बल्कि उसे अफसर की बीवी-बच्चियों के गन्दे कपड़े भी साफ करने होते हैं। क्या यह उस पुलिस कॉंस्टेबल के सम्मान का बलात्कार नहीं है?

Tuesday, January 24, 2012

आरक्षण समाप्त करना है तो आरक्षित वर्ग के वर्गद्रोही अफसर तत्काल बर्खास्त किये जायें!

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

भारत के संविधान के बारे में जानकारी रखने वाले सभी विद्वान जानते हैं कि हमारे संविधान के भाग तीन अनुच्छेद-14, 15 एवं 16 में जो कुछ कहा गया है, उसका साफ मतलब यही है कि धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर किसी भी नागरिक के साथ किया जाने वाला विभेद असंवैधानिक होगा| समानता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन होगा| इस स्पष्ठ और कठोर प्रावधान के होते हुए अनुच्छेद 16 (4) में कहा गया है कि-
‘‘इस अनुच्छेद (उक्त) की कोई बात राज्य (जिसे आम पाठकों की समझ के लिये सरकार कह सकते हैं, क्योंकि हमारे यहॉं पर प्रान्तों को भी राज्य कहा गया है|) को पिछड़े हुए नागरिकों के किसी वर्ग के पक्ष में, जिनका प्रतिनिधित्व राज्य की राय में राज्य के अधीन सेवाओं में पर्याप्त नहीं है, नियुक्तियों में या पदों के आरक्षण के लिए उपबन्ध करने से निवारित नहीं (रोकेगी नहीं) करेगी|’’
उक्त प्रावधान को अनेकों बार हमारे देश की सर्वोच्च न्यायपालिका ने उचित और न्याय संगत ठहराया है और साथ ही यह भी कहा है कि अनुच्छेद 14 से 16 में समानता की जो भावना संविधान में वर्णित है, वह तब ही पूरी हो सकती है, जबकि समाज के असमान लोगों के बीच समानता नहीं, बल्कि समान लोगों के बीच समानता का व्यवहार किया जावे|

इसी समानता के लक्ष्य को हासिल करने के लिये उक्त संवैधानिक प्रावधान में पिछड़े वर्ग लोगों को सरकारी सेवाओं में प्रतिनिधित्व प्रदान करने पर जोर दिया गया है| संविधान निर्माताओं का इसके पीछे मूल ध्येय यही रहा था कि सरकारी सेवओं में हर वर्ग का समान प्रतिनिधित्व हो ताकि किसी भी वर्ग के साथ अन्याय नहीं हो या सकारात्मक रूप से कहें तो सबके साथ समान रूप से न्याय हो सके| क्योंकि इतिहास को देखने से उन्हें ज्ञात हुआ कि कालान्तर में वर्ग विशेष के लोगों का सत्ता एवं व्यवस्था पर लगातार वंशानुगत कब्जा रहने के कारण समाज का बहुत बड़ा तबका (जिसकी संख्या पिच्यासी फीसदी बताई जाती है) हर प्रकार से वंचित और तिरष्कृत कर दिया गया|

ऐसे हालातों में इन वंचित और पिछड़े वर्गों को सरकारी सेवाओं में प्रतिनिधित्व प्रदान करने की पवित्र सोच को अमलीजामा पहनाने के लिये अनुच्छेद 16 में उक्त उप अनुच्छेद (4) जोड़कर अजा, अजजा एवं अन्य पिछडा वर्ग के लोगों को नौकरियों में कम अंक प्राप्त करने पर भी आरक्षण के आधार पर नौकरी प्रदान की जाती रही हैं| 

यदि आज के सन्दर्भ में देखें तो इसी संवैधानिक प्रावधान के कारण कथित रूप से 70 प्रतिशत से अधिक अंक पाने वाले अनारक्षित वर्ग के प्रत्याशियों को नौकरी नहीं मिलती, जबकि आरक्षित वर्ग में न्यूनतम निर्धारित अंक पाने वाले प्रत्याशी को 40 या 50 प्रतिशत या कम अंक अर्जित करने वालों को सरकारी नौकरी मिल जाती है| अनराक्षित वर्ग के लोगों की राय में इस विभेद के चलते अनारक्षित वर्ग के लोगों, विशेषकर युवा वर्ग में भारी क्षोभ, आक्रोश तथा गुस्सा भी देखा जा सकता है|

इसके बावजूद भी मेरा मानना है कि पूर्वाग्रही, अल्पज्ञानी, मनुवादी और कट्टरपंथियों को छोड़ दें तो उक्त प्रावधानों पर किसी भी निष्पक्ष, आजादी के पूर्व के घटनाक्रम का ज्ञान रखने वाले तथां संविधान के जानकार व्यक्ति कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिये, क्योंकि इस प्रावधान में सरकारी सेवाओं में हर वर्ग का समान प्रतिनिधित्व स्थापित करने का न्यायसंगत प्रयास करने का पवित्र उद्देश्य अन्तर्हित है| परन्तु समस्या इस प्रावधान के अधूरेपन के कारण है|

मेरा विनम्र मत है कि उक्त प्रावधान पिछड़े वर्ग के लोगों को प्रतिनिधित्व देने के लिये निर्धारित योग्यताओं में छूट प्रदान करने सहित, विशेष उपबन्ध करने की वकालत तो करता है, लेकिन इन वर्गों का सही, संवेदनशील, अपने वर्ग के प्रति पूर्ण समर्पित एवं सशक्त प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने पर पूरी तरह से मौन है| इस अनुच्छेद में या संविधान के अन्य किसी भी अनुच्छेद में कहीं भी इस बात की परोक्ष चर्चा तक नहीं की गयी है कि तुलनात्मक रूप से कम योग्य होकर भी अजा, अजजा एवं अ.पि.वर्ग में आरक्षण के आधार पर उच्च से उच्चतम पदों पर नौकरी पाने वाले ऐसे निष्ठुर, बेईमान और असंवेदनशील आरक्षित वर्ग के लोक सेवकों को भी क्या सरकारी सेवा में क्यों बने रहना चाहिये, जो सरकारी नौकरी पाने के बाद अपने वर्ग का प्रतिनिधित्व करना तो दूर अपने आचरण से अपने आपको अपने वर्ग का ही नहीं मानते?

मैं अजा एवं अजजा संगठनों के अखिल भारतीय परिसंघ (जिसके राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. उदित राज हैं और इण्डियन जस्टिस पार्टी के भी अध्यक्ष है|) का राष्ट्रीय महासचिव रह चुका हूँ| अखिल भारतीय भील-मीणा संघर्ष मोर्चा मध्य प्रदेश का अध्यक्ष रहा हूँ| ऑल इण्डिया एसी एण्ड एसटी रेलवे एम्पलाईज एसोसिएशन में रतलाम मण्डल का कार्यकारी मण्डल अध्यक्ष रहा हूँ| अखिल भारतीय आदिवासी चेतना परिषद का परामर्शदाता रहा हूँ| वर्तमान में ऑल इण्डिया ट्राईबल रेलवे एम्पलाईज एसोसिएशन का राष्ट्रीय अध्यक्ष हूँ| इसके अलावा अजा, अजजा तथा अन्य पिछड़ा वर्ग के अनेक संगठनों और मंचों से भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सम्बद्ध रहा हूँ|

इस दौरान मुझे हर कदम पर बार-बार यह अनुभव हुआ है कि आरक्षित वर्ग के मुश्किल से पॉंच प्रतिशत अफसरों को अपने वर्ग के नीचे के स्तर के कर्मचारियों तथा अपने वर्ग के आम लोगों के प्रति सच्ची सहानुभूति होती है| शेष पिच्यानवें फीसदी आरक्षित वर्ग के अफसर उच्च जाति के अनारक्षित अफसरों की तुलना में अपने वर्ग के प्रति असंवेदनशील, विद्वेषी, डरपोक होते हैं और अपने वर्ग से दूरी बनाकर रखते हैं| जिसके लिये उनके अपने अनेक प्रकार के तर्क-वितर्क या बहाने हो सकते हैं, जैसे उन्हें अपने वर्ग का ईमानदारी से प्रतिनिधित्व करने पर अनारक्षित वर्ग के उच्चाधिकारी उनके रिकार्ड को खराब कर देते हैं| इस बात में एक सीमा तक सच्चाई भी है, लेकिन इस सबके उपरान्त भी उक्त और अन्य सभी तर्क कम अंक पाकर भी आरक्षण के आधार पर नौकरी पाकर अपने वर्ग का प्रतिनिधित्व नहीं करने के अपराध को कम नहीं कर पाते हैं! क्योंकि सरकारी सेवा में ऐसे डरपोक लोगों के लिये कोई स्थान नहीं होता है, जो अपने कानूनी और संवैधानिक दायित्वों का ईमानदारी, निष्ठा और निर्भीकतापूर्वक निर्वहन नहीं कर सकते|

इस बारे में, मैं कुछ अन्य बातें भी स्पष्ट कर रहा हूँ-अजा एवं अजजा के अधिकतर ऐसे उच्च अफसर जिनके पास प्रशासनिक अधिकार होते हैं और जिनके पास अपने वर्ग को भला करने के पर्याप्त अधिकार होते हैं| अपने मूल गॉंव/निवास को छोड़कर सपरिवार सुविधासम्पन्न शहर या महानगरों में बस जाते हैं| गॉंवों में पोस्टिंग होने से बचने के लिये रिश्वत तक देते हैं और हर कीमत पर शहरों में जमें रहते हैं| अनेक अपनी जाति या वर्ग की पत्नी को त्याग देते हैं (तलाक नहीं देते) और अन्य उच्च जाति की हाई-फाई लड़की से गैर-कानूनी तरीके से विवाह रचा लेते हैं| अनारक्षित वर्ग के अफसरों की ही भॉंति कार, एसी, बंगला, फार्म हाऊस, हवाई यात्रा आदि साधन जुटाना इनकी प्राथमिकताओं में शामिल हो जाते हैं|

ऐसे अफसरों द्वारा अपने आरक्षित वर्ग का सरकारी सेवा में संविधान की भावना के अनुसार प्रतिनिधित्व करना तो दूर, ये अपने वर्ग एवं अपने वर्ग के लोगों से दूरी बना लेते हैं और पूरी तरह से राजशाही का जीवन जीने के आदी हो जाते हैं| इस प्रकार के असंवेदनशील और वर्गद्रोही लोगों द्वारा अपने वर्ग का प्रतिनिधित्व नहीं करने पर भी, इनका सरकारी सेवा में बने रहना हर प्रकार से असंवैधानिक और गैर-कानूनी तो है ही, साथ ही संविधान के ही प्रकाश में पूरी तरह से अलोकतान्त्रिक भी है| क्योंकि उक्त अनुच्छेद 16 के उप अनुच्छेद (4) में ऐसे लोगों को तुलनात्मक रूप से कम योग्य होने पर भी अपने वर्ग का प्रतिनिधित्व करने के एक मात्र संवैधानिक उद्देश्य से ही इन्हें सरकारी सेवा में अवसर प्रदान किया जाता है|

ऐसे में अपने वर्ग का प्रतिनिधित्व नहीं करके, अपने वर्ग से विश्वासघात करने वालों को सरकारी सेवा में बने रहने का कोई कानूनी या नैतिक औचित्य नहीं रह जाता है| इस माने में संविधान का उक्त उप अनुच्छेद आरक्षित वर्गों को सरकारी सेवाओं में प्रतिनिधित्व प्रदान करने की भावना को पूर्ण करने के मामले में अधूरा और असफल सिद्ध हुआ है| यही कारण है कि आज भी अजा एवं अजजा वर्ग लगातार पिछड़ता जा रहा है| जबकि सरकारी सेवाओं में आरक्षित वर्गों का सशक्त और संवेदनशील प्रतिनिधित्व प्रदान करने के उद्देश्य से ही आरक्षित वर्ग के लोगों को पीढी दर पीढी आरक्षण प्रदान करने को न्याय संगत ठहराया गया है|

मेरा मानना है कि यदि इस सन्दर्भ में प्रारम्भ से ही संविधान में यह प्रावधान किया गया होता कि आरक्षण के आधार पर नौकरी पाने वाले लोगों को तब तक ही सेवा में बने रहने का हक होगा, जब तक कि वे अपने वर्ग का ईमानदारी से सरकारी सेवाओं में प्रतिनिधित्व करते रहेंगे, तो मैं समझता हूँ कि हर एक आरक्षित वर्ग का अफसर अपने वर्ग के प्रति हर तरह से संवेदनशील और समर्पित होता| जिससे आरक्षित वर्गों का उत्थान भी होता जो संविधान की अपेक्षा भी है और इस प्रकार से मोहन दास कर्मचन्दी गॉंधी द्वारा सैपरेट इलेक्ट्रोल के हक को छीनकर जबरन थोपे गये आरक्षण के अप्रिय प्रावधान से हम एक समय में जाकर हम मुक्त होने के लक्ष्य  को भी हो भी हासिल कर पाते| जो वर्तमान में कहीं दूर तक नज़र नहीं आ रहा है!

अतः अब हर एक जागरूक और राष्ट्र भक्त मंच से मांग उठनी चाहिये कि जहॉं एक ओर आरक्षित वर्ग के अफसरों को सरकारी सेवाओं में अपने वर्ग का निर्भीकता पूर्वक प्रतिनिधित्व करने के लिये अधिक सशक्त कानूनी संरक्षण प्रदान किया जावे| उनका रिकार्ड खराब करने वालों को दण्डित किया जावे और इसके उपरान्त भी आरक्षित वर्ग के अफसर यदि अपने वर्ग का निष्ठा, निर्भीकता और ईमानदारी से प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं तो ऐसे अफसरों को तत्काल सेवा से बर्खास्त किया जावे| यदि हम ऐसा प्रावधान नहीं बनवा पाते हैं तो आरक्षण को जरी रखकर आरक्षण के आधार पर कम योग्य लोगों को नौकरी देकर कथित रूप से राष्ट्र के विकास को अवरुद्ध करने और समाज में सौहार्द के स्थान पर वैमनस्यता का वातावरण पैदा करने को स्वीकार करने का कोई न्यायसंगत कारण या औचित्य  नजर नहीं आता है|

अत: संविधान और संविधान द्वारा प्रदत्त सामाजिक न्याय की अवधारणा में विश्‍वास रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति को चाहिये कि भारत सरकार को इस बात के लिये बाध्य किया जाये कि संविधान में इस बात का भी प्रावधान किया जावे कि आरक्षित वर्गों का सरकारी सेवाओं में प्रतिनिधित्व करने के उद्देश्य से अनारक्षित वर्ग के लोगों की तुलना में कमतर होकर भी आरक्षण के आधार पर नौकरी पाने वालों को पूर्ण समर्पण और संवेदनशीलता के साथ अपने वर्ग और अपने वर्ग के लोगों का सकारात्मक प्रतिनिधित्व करना चाहिये और ऐसा करने में असफल रहने वाले आरक्षित वर्ग के वर्गद्रोही अफसरों या कर्मचारियों को सरकारी सेवा से बर्खास्त करने की सिफारिश करने के लिये अजा और अजजा आयोगों का संवैधानिक रूप से सशक्त किया जाना चाहिये| अन्यथा न तो कभी आरक्षण समाप्त होगा और न हीं आरक्षित वर्गों का सरकारी सेवाओं में संवैधानिक भावना के अनुसार सच्चा प्रतिनिधित्व ही स्थापित हो सकेगा|

Wednesday, January 18, 2012

अभिव्यक्ति और धर्म की आजादी के मायने!

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

राजस्थान की राजधानी जयपुर में ‘जयपुर फेस्टीवल’ में शीर्ष साहित्यकारों को आमन्त्रित किया गया था, जिनमें भारत मूल के ब्रिटिश नागरिक सलमान रुश्दी को भी बुलावा भेजा गया| सलामन रुश्दी की भारत यात्रा के विरोध में अनेक मुस्लिम संगठन आगे आये और सरकार द्वारा उनके दबाव में आकर सलमान रुश्दी को भारत बुलाने का विचार त्याग दिया गया|

Monday, January 9, 2012

पाक अधिकृत नहीं, पाक काबिज कश्मीर लिखें!

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

भारत की आजादी के बाद जम्मू और कश्मीर पर पाकिस्तान की सेना ने कबायलियों के बेश में आक्रमण किया था, जिससे बचाव के लिये वहॉं के तत्कालीन शासक राजा हरिसिंह ने भारत से मदद मांगी| मदद के बदले में भारत की ओर से

Sunday, November 20, 2011

सुखराम बनाम ए. राजा : 4 अनुपात 96 बनाम 96 अनुपात 4?

केवल वर्तमान में ही नहीं, बल्कि हमेशा से सही और सत्य बोलने वालों को सूली पर चढाया जाता रहा है| ऐसे लोगों का तिरस्कार किया जाता रहा है| इसके उपरान्त भी सत्य या सही बोलने वालों ने दुनिया की परवाह नहीं की और अपनी बात अपने तरीके से कहते रहे| जिसे सदियों बाद भी दुनिया याद करती है|

Saturday, October 22, 2011

मेरी तड़प का मतलब!

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

मेरा शरीर मेरा है|
जैसे चाहूँ, जिसको सौंपूँ!
हो कौन तुम-
मुझ पर लगाम लगाने वाले?
जब तुम नहीं हो मेरे
मुझसे अपनी होने की-
आशा करते क्यों हो?

Tuesday, October 11, 2011

पुलिस से कैसे निपटें?

हम सभी जानते हैं कि हर समस्या के एक से अधिक पहलू होते हैं। प्रत्येक पहलू को निष्पक्षतापूर्वक समझे बिना समस्या का समाधान सम्भव नहीं हो सकता। ऐसा देखने में आया है कि पुलिस अपनी छवि में कैद है। पुलिसजनों के मनोमस्तिष्क में यह बात घर किये हुए है कि यदि वह अपनी अंग्रेजों की दैन क्रूरता वाली छवि से मुक्त हो गयी तो

Friday, September 9, 2011

लोगों का राष्ट्रहित में चिन्तित होना आश्‍चर्यजनक!

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’
‘‘मैंने अपनों की ओर से दिये गये दर्द और जख्मों को झेला है| सच तो यह है कि मैं पल प्रतिपल झेलते रहने को

Thursday, September 8, 2011

भीड़ का न्याय अकल्पनीय होता है!

सुधि पाठक इस आगे पढने से पूर्व केवल इतना सा जान लें कि प्रत्येक सरकारी अधिकारी और कर्मचारी भारत के संविधान के अनुसार पब्लिक सर्वेण्ट हैं, जिसका स्पष्ट अर्थ है कि प्रत्येक सरकारी अधिकारी एवं कर्मचारी न

Wednesday, September 7, 2011

अससंवेदनशीलता के मायने...?

यदि आतंवादी लगातार घटनाओं को जन्म नहीं दें तो आम व्यक्ति आतंकवाद के खिलाफ बोलने या आतंकवाद का विरोध करने के बारे में उसी प्रकार से चुप्पी साध ले, जिस प्रकार

Tuesday, September 6, 2011

जागरूकता का प्रकाश ही दिवाली!

अन्धकार के विरुद्ध प्रकाश या नाइंसाफी के विरुद्ध इंसाफ के लिये घी, तेल, मोम या बिजली के दीपक या उजाले तो मात्र हमें प्रेरणा देने के संकेतभर हैं। सच्चा दीपक है, अपने

Sunday, September 4, 2011

स्त्री को दार्शनिक बना देना!

व्यक्ति जिस समाज, धर्म या संस्कृति में पल-बढकर बढा होता है। व्यक्ति का जिस प्रकार से समाजीकरण होता है, उससे उसके मनोमस्तिष्क में और गहरे में जाकर अवचेतन मन में अनेक प्रकार की झूठ, सच, भ्रम या

अभी मृत्यु और जीवन की कामना से कम्पित है यह शरीर!

जब कोई कहता है कि वह 25 वर्ष का हो गया तो इसका सही अर्थ होता है-उसने अपने जीवन को 25 वर्ष जी लिया है या वह 25 वर्ष मर चुका है।

बेड़ियों और भेड़ियों से मुक्ति सच्चे प्यार (स्नेह) और ध्यान से सम्भव!

आप लिखती हैं कि-
1- "औरत को आज़ाद तभी माना जा सकता है जब उसे बेड़ियों और भेड़ियों से रिहा कर

Friday, September 2, 2011

निराशा असमय मृत्यु और आशा जीवन की वीणा है।

निराशा और नकारात्मकता दोनों ही चिन्ता, तनाव, क्लेश और बीमारियों की जननी हैं,

Friday, August 26, 2011

परिवार की जान हैं आत्मीय सम्बन्ध!

: समस्या : मुझे यह बात अन्दर ही अन्दर घुन की तरह खाये जा रही है कि मेरे पडोसियों में से सबके पास कार है, जबकि मेरे पास आज के जमाने की अच्छी सी मोटरसाईकल भी नहीं है।

Thursday, August 25, 2011

बकरीद पर बेजुबानों की सामूहिक हत्या!

मेरे हृदय से मेरे किसी भी मुश्लिम मित्र को 'बकरीद' के दिन मुबारकबाद नहीं निकलती

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