जानिए-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान के मुख्य संस्थापक और राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश' को!
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मेरा परिचय :
नाम : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश', आस्तिक हिन्दू! तीसरी कक्षा के बाद पढाई छूटी! बाद में नियमित पढाई केवल 04 वर्ष! जीवन के 07 वर्ष मेहनत-मजदूरी जंगलों व खेतों में, 04 वर्ष 02 माह 26 दिन 04 जेलों में गुजारे और 20 वर्ष 09 माह 05 दिन दो रेलों में सेवा के बाद स्वैच्छिक सेवानिवृति! जेल के दौरान-कई सौ पुस्तकों का अध्ययन, कविता लेखन किया एवं जेल में ही ग्रेज्युएशन डिग्री पूर्ण की! हिन्दू धर्म, जाति, वर्ण, समाज, कानून, अर्थ व्यवस्था, आतंकवाद, राजनीति, कानून, संविधान, स्वास्थ्य, मानव व्यवहार, मानव मनोविज्ञान, दाम्पत्य, आध्यात्म सहित अनेकानेक विषयों पर सतत लेखन और चिन्तन! विश्‍लेषक, टिप्पणीकार, कवि और शोधार्थी! छोटे बच्चों, कमजोर व दमित वर्गों, आदिवासियों और मजबूर औरतों के शोषण, उत्पीड़न तथा अभावमय जीवन के विभिन्न पहलुओं पर अध्ययनरत! जयपुर से प्रकाशित हिन्दी पाक्षिक समाचार-पत्र "प्रेसपालिका" का सम्पादक! 1993 में स्थापित और वर्तमान में देश के 18 राज्यों में सेवारत राष्ट्रीय संगठन ‘भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान’ (बास-BAAS) का मुख्य संस्थापक तथा राष्ट्रीय अध्यक्ष! जिसमें 12.01.2012 तक 5244 आजीवन सदस्य सेवारत हैं!
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मेरी मान्यताएँ : 1-संविधान, कानून, न्याय व्यवस्था तथा प्रशासनिक असफलता और मनमानी की अनदेखी तथा जन्मजातीय विभेद के कारण भ्रष्टाचार एवं अत्याचार पनपा और बढ़ा है! 2-भारत, भारतीयता और हिन्दू समाज के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती : (क) अपराधियों व शोषकों के तिरस्कार के बजाय, उनका महिमा मंडन तथा (ख) कदम-कदम पर ढोंग को मान्यता! 3-आरक्षित वर्ग-(अनुसूचित जन जाति-आदिवासी वर्ग) का होकर भी वर्तमान आरक्षण व्यवस्था से पूर्णत: असन्तुष्ट! क्योंकि यह आरक्षित वर्गों को पंगु बनाती है और यह सामाजिक वैमनस्यता को बढ़ावा दे रही है! लेकिन आरक्षण समाप्त करने से हालत सुधरने के बजाय बिगड़ेंगे! 4-मनमानी और नाइंसाफी के खिलाफ संगठित जनांदोलन की जरूरत! जिसके तीन मूल सूत्र हैं : (1) एक साथ आना शुरुआत है| (2) एक साथ रहना प्रगति है! और (3) एक साथ काम करना सफलता है| 5-सबसे ज्यादा जरूरी बदलाव : (1) "अपने आपको बदलो! दुनिया बदल जायेगी!" (2) भय और अज्ञान की नींद से जागो! उठो और संगठित होकर बोलो! न्याय जरूर मिलेगा| 6-मेरा सन्देश : आखिर कब तक सिसिकते रहोगे? साहस है तो सच कहो, क्योंकि बोलोगे नहीं तो कोई सुनेगा कैसे? 7-मेरा मकसद : मकसद मेरा साफ! सभी के साथ इंसाफ!
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Tuesday, October 11, 2011

पुलिस से कैसे निपटें?

हम सभी जानते हैं कि हर समस्या के एक से अधिक पहलू होते हैं। प्रत्येक पहलू को निष्पक्षतापूर्वक समझे बिना समस्या का समाधान सम्भव नहीं हो सकता। ऐसा देखने में आया है कि पुलिस अपनी छवि में कैद है। पुलिसजनों के मनोमस्तिष्क में यह बात घर किये हुए है कि यदि वह अपनी अंग्रेजों की दैन क्रूरता वाली छवि से मुक्त हो गयी तो
उसकी महत्ता समाप्त हो जायेगी और उसकी कोई सुनने वाला नहीं है। कुछ सीमा तक इसमें सच्चाई भी है। इस कारण पुलिस अपनी पुरातन और अंग्रेजों की दैन छवि में ही सम्भवतः न चाहकर भी कैद है। इसके विपरीत हमें देखना होगा कि क्या पुलिस के बिना हमारा काम चल सकता है। जब भी कोई मुसीबत आती है, हम सीधे पुलिस थाने में जाकर गुहार करते हैं, बेशक थाने में कथित रूप से बिना लिये-दिये सुनवाई नहीं होने के ढेरों आरोप पुलिस के माथे पर हमेशा ही लगते रहते हैं। लेकिन यह भी तो सच है कि पुलिस हमें संरक्षण प्रदान करती है।

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश' 
भारत को आजाद हुए लम्बा समय गुजर चुका है, लेकिन आज भी आम व्यक्ति का सम्मान एवं उसकी जानमाल सुरक्षित नहीं हैं। हालात इतने खतरनाक हैं कि पिछले दिनों राट्रपति भवन में भी चोरी हो गयी। ऐसे में आम व्यक्ति की सुरक्षा व्यवस्था के बारे में सहज कल्पना की जा सकती है।

कहने को तो संविधान में साफ शब्दों में लिखा गया है कि "कानून के समक्ष प्रत्येक व्यक्ति को समान समझा जायेगा एवं कानून का सभी को समान संरक्षण प्राप्त होगा।" केवल इतना ही नहीं, बल्कि ऐसा प्रावधान संविधान के भाग तीन में नागरिकों के मूल अधिकारों के रूप में किया गया है, जिनका उल्लंघन करने का किसी को कोई अधिकार नहीं है और यदि कोई मूल अधिकारों का उल्लंघन करता भी है तो उसके खिलाफ सीधे देश की सुप्रीम कोर्ट तथा अपने राज्य के हाई कोर्ट में याचिका दायर करके संरक्षण मांगा जा सकता है। हमारे देश के संविधान में देश के सुप्रीम कोर्ट एवं होई कोर्ट्‌स को मूल अधिकारों के गारण्टर एवं पहरेदार के रूप में माना गया है।

अनेकों बार अनेक मामलों में सुप्रीम कोर्ट एवं हाई कोर्ट्‌स ने इस जिम्मेदारी का निर्वाह भी किया है इसके बावजूद भी बार-बार यह बात सामने आती है कि आज भी आम व्यक्ति को यदि सबसे अधिक भय है, तो केवल -पुलिस से ही है। उस पुलिस से जिसे संविधान में पब्लिक सर्वेण्ट अर्थात्‌ जनता की नौकर लिखा गया है। देश के किसी न किसी हिस्से से आये दिन खबरें आती रहती हैं कि पुलिस ने एक आम व्यक्ति के साथ किस प्रकार से अमानवीय एवं क्रूरतापूर्ण व्यवहार किया। बल्कि यह कहना अधिक ठीक होगा कि पुलिस लोगों को सुरक्षा दिलाने के बजाय, लोगों को आतंकित एवं भयभीत करने के लिये अधिक प्रचारित होती रहती है या मीडिया द्वारा प्रचारित की जाती रहती है। कथित रूप से पुलिस की इतनी क्रूर एवं भयाक्रान्त कर देने वाली छवि के उपरान्त भी ऐसा माना जाता है कि पुलिस के सहयोग के बिना किसी भी आम-ओ-खास और यहाँ तक कि गुण्डों का भी काम नहीं चल सकता है।

समाज में मान्यता है कि जहाँ बडे लोगों को पुलिस छाया की तरह से सुरक्षा प्रदान करती है। पुलिस पर गुण्डों को संरक्षण प्रदान करने के आरोप भी लगाये जाते हैं, जबकि आम व्यक्ति को शिकायत रहती है कि पुलिस न मात्र उसकी सुनती ही नहीं, बल्कि पुलिस उसके साथ अभद्रता भी करती है। समाज में अधिकतर लोगों का यह भी मानना है कि बडे लोगों एवं गुण्डों का तो पुलिस कुछ कर नहीं सकती और अपनी भड़ास आम व्यक्ति के विरुद्ध निकालती है। इसलिये पुलिस से आम व्यक्ति सबसे अधिक त्रस्त है। इन सब बातों में कितनी सच्चाई  है। इस विषय की पडताल करना न तो इस आलेख को लिखने का लक्ष्य है और न हीं ऐसी कोई पडताल की गयी है, बल्कि इस आलेख को लिखने के पीछे हम यह बतलाने का प्रयास कर रहे हैं कि जब पुलिस को लोगों की सुरक्षा प्रदान करने के लिये वेतन दिया जाता है, फिर भी पुलिस आम लोगों के विरुद्ध अभद्र व्यवहार करने के लिये बदनाम होती रहती है। ऐसे में आम व्यक्ति पुलिस से कैसे निपट सकता है?

हम सभी जानते हैं कि हर समस्या के एक से अधिक पहलू होते हैं। प्रत्येक पहलू को निष्पक्षतापूर्वक समझे बिना समस्या का समाधान सम्भव नहीं हो सकता। ऐसा देखने में आया है कि पुलिस अपनी छवि में कैद है। पुलिसजनों के मनोमस्तिष्क में यह बात घर किये हुए है कि यदि वह अपनी अंग्रेजों की दैन क्रूरता वाली छवि से मुक्त हो गयी तो उसकी महत्ता समाप्त हो जायेगी और उसकी कोई सुनने वाला नहीं है। कुछ सीमा तक इसमें सच्चाई भी है। इस कारण पुलिस अपनी पुरातन और अंग्रेजों की दैन छवि में ही सम्भवतः न चाहकर भी कैद है। इसके विपरीत हमें देखना होगा कि क्या पुलिस के बिना हमारा काम चल सकता है। जब भी कोई मुसीबत आती है, हम सीधे पुलिस थाने में जाकर गुहार करते हैं, बेशक थाने में कथित रूप से बिना लिये-दिये सुनवाई नहीं होने के ढेरों आरोप पुलिस के माथे पर हमेशा ही लगते रहते हैं। लेकिन यह भी तो सच है कि पुलिस हमें संरक्षण प्रदान करती है।

इसलिये पुलिस के अस्तित्व को आम व्यक्ति के जीवन में नकारा नहीं जा सकता। यदि एक दिन के लिये भी पुलिस को हटा दिया जावे तो हमारे पडौस में रहने वाले कितने ही सफेदपोश चेहरे सरेराह लोगों को लूटते मिल जायेंगे। इस बात में कोई सन्देह नहीं कि पुलिस के नाम से ही आम व्यक्ति की सुरक्षा होती है। इसके उपरान्त भी इस बात को स्वीकार नहीं किया जा सकता कि पुलिस को सुरक्षा प्रदान करने के एवज में आम व्यक्ति से अभद्रता करने का हक होना चाहिये। एक सम्मानित व्यक्ति जब पुलिस थाने में जाता है तो पूरी उम्मीद के साथ जाता है कि उसको कानूनी संरक्षण प्रदान किया जायेगा। लेकिन उसे अधिकतर तिरस्कार एवं अपमान ही सहना पडता है। थाने की प्रचलित परम्परानुसार हर सम्भव प्रयास यह होता है कि जहाँ तक सम्भव हो फरियादी की एफआईआर दर्ज नहीं करनी पडे। एफआईआर दर्ज करते ही उस थाना क्षेत्र में एक अपराध संख्या और बढ जाती है। जाँच-पडताल करने के लिये एक मुकदमा और दर्ज हो जाता है। जिसका न्यायालय में चालान करना होता है। पुलिस के आला अधिकारियों को मुकदमों की संख्या बढने का जवाब देना पडता है।

यह सबसे बुरी, घिनोनी, गलत और शर्मनाक है कि अधिक मुकदमे दर्ज होने का कारण आला पुलिस अधिकारियों द्वारा थानाधिकारी से पूछा जाता है। जबकि इसके विपरीत होना तो यह चाहिये कि जिस थाने में अधिक मुकदमे दर्ज हुए हों, उस थाने को जनता के प्रति अधिक संवेदनशीलता का प्रमाण-पत्र दिया जाना चाहिये। आखिर अपराधियों से आहत जनता का कानूनी तौर पर उपचार प्रदान करने का काम करने के लिये ही तो पुलिस थानों की स्थापना की गयी है। जिन्हें अधिकतम कानूनी उपचार प्रदान करने के लिये, सवालों के घेरे में खडा करना किसी भी सूरत में न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता।

क्या कभी किसी उच्च स्तर के चिकित्सा अधिकारी ने नीचे के स्तर के चिकित्सक से यह सवाल किया है कि उसके द्वारा अधिक संख्या में बीमारों का उपचार क्यों किया गया? यदि नहीं तो पुलिस से भी यह नहीं पूछा जाना चाहिये कि उसने अधिक फरियादियों की फरियाद दर्ज क्यों की? क्योंकि पुलिस भी तो आहत व्यक्ति को कानूनी उपचार प्रदान करती है। कानूनी उपचार भी जीवन के लिये उतना ही जरूरी है, जितना कि चिकित्सक द्वारा प्रदान किया जाने वाला शारीरिक या मानसिक उपचार।

इसलिये आमजन को सबसे पहला काम तो यह करना होगा कि ऐसा माहौल बनाया जावे कि अधिक मुकदमे दर्ज करने वाले पुलिस थानों को पुरस्कृत किया जावे। इसके लिये सरकारों को बाकायदा कानून बनाने के लिये बाध्य किया जावे कि जब भी कोई व्यक्ति पुलिस थाने में अपनी फरियाद लेकर जाये, तो सबसे पहले मुकदमा दर्ज किया जावे, उसके बाद यह देखा जावे कि आहत व्यक्ति की ओर से प्रस्तुत तथ्य सत्य हैं या नहीं। एक मामले में इस बात की पुष्टि सुप्रीम कोर्ट द्वारा भी की जा चुकी है। किसी भी अस्पताल में रोगी का केस पहले बनाया जाता है, यह बाद में देखा जाता है कि रोगी को क्या तकलीफ या क्या बीमारी है और कोई बीमारी है भी या नहीं!

दूसरी और सबसे महत्वूपर्ण बात है वो यह है कि हमारे देश में इतने कानून हैं कि पश्चिमी देशों के कानूनविदों द्वारा भारत को कानूनों का जंगल कहा जाता है। इस कानूनों के जंगलों की समाज के लिये क्रियान्विती की जिम्मेदारी हमारे संविधान ने पुलिस के सिर पर डाली है। इसके साथ-साथ यह तथ्य भी ध्यान देने योग्य है कि पुलिस द्वारा कोर्ट में पेश मुकदमों में से अधिसंख्य मामलों में अपराधी छूट जाते हैं। केवल इतना ही नहीं, बल्कि एक तटस्थ अध्ययन के अनुसार तो सजा पाने वालों में निर्दोष लोगों की संख्या अधिक है। यह तथ्य सरकार से छिपा नहीं है। इसके बावजूद भी इस कानूनी बीमारी से मुक्ति के लिये कोई स्थायी समाधान क्यों नहीं सोचा जाता है? यह अपने आप में आश्चर्य का विषय है!

हमेशा सतही उपचार किये जाते हैं। जबकि सबसे बडी समस्या है मूल में, अर्थात्‌ कानून को लागू करने वाली पुलिस के सिपाही से लेकर सबसे बडे व सीधे प्रथम श्रेणी में संघ लोक सेवा आयोग द्वारा भर्ती किये जाने वाले आईपीएस तक किसी भी पुलिसवाले के लिये किसी भी प्रकार की कानूनी शैक्षणिक योग्यता की अनिवार्यता नहीं है। प्रशिक्षण के दौरान कानून सिखाने की औपचारिकता पूर्ण करके इन सबको कानून का जानकार बनाया जाता है। यदि इस प्रकार के प्रशिक्षण द्वारा ही कानून सिखाया जाना सम्भव है तो फिर देशभर में कानून के विश्वविद्यालय एवं महाविद्यालयों की स्थापना की आवश्यकता ही नहीं है।

वास्तव में हम एक ऐसे देश में रहते हैं, जहाँ कानूनों का जंगल है और उस कानूनी जंगल को सुरक्षित रखने, उसे देश के हर व्यक्ति के लिये फलित करने की पूरी जिम्मेदारी कानून से अनभिज्ञ पुलिस के लोगों के हाथ में दी गयी है। अर्थात्‌ जिस प्रकार से दूर-दराज गाँवों में गैर-कानूनी रूप से नीम हकीम लोगों का शारीरिक उपचार करते हैं। उसी प्रकार देशभर में पुलिस द्वारा भी कानूनी उपचार प्रदान करने के लिये विधि-स्नातक की योग्यता नहीं होने के उपरान्त भी खुलेआम नीम-हकीमी कानूनी उपचार प्रदान किया जा रहा है। फिर भी हम आशा करते हैं कि पुलिस कानून के अनुसार हमें संरक्षण प्रदान करे? यह कैसे सम्भव है? 

जिन लोगों ने कानून पढा नहीं। जिन्हें संविधान की सर्वोच्च्ता, नागरिक मूल अधिकारों की गरिमा और मानव अधिकारों की पवित्रता का जिन लोगों को वास्तविक ज्ञान नहीं, उन लोगों से इन सबके क्रियान्वयन एवं इनकी सुरक्षा की अपेक्षा करना सिवा मूर्खता के और क्या है? जब एक पुलिस वाला किसी आहत व्यक्ति को कानूनी उपचार प्रदान करने के बजाय उसके साथ अभद्र व्यवहार कर रहा होता है तो उसे ज्ञात ही नहीं होता है कि वह संविधान के अनुच्छेद-14, 19, 21 एवं 32 का तो उल्लंघन कर ही रहा है। साथ ही साथ अपने देश को अन्तर्राट्रीय मंच पर खुले तौर पर मानव अधिकारों का उल्लंघन करने वाला देश भी घोषित कर रहा होता है। 

सोचने की बात यह है कि हम उन लोगों से कानून लागू करने की उम्मीद करते हैं, जो जानते ही नहीं कि कानून है क्या? परन्तु इसमें पुलिस का नहीं देश के कर्णधारों का दोष है। हमारे देश में अंग्रेजों की देन शासन व्यवस्था ज्यों की त्यों लागू है, जिसके तहत विधि मन्त्रालय का मुखिया अर्थात्‌ सचिव एक आईएएस होता है, जो कि समान्यतः किसी भी विषय का स्नातक होता है। उससे भी कानून में स्नातक होने की अपेक्षा नहीं है। विधि सचिव के नियन्त्रण में विधि-मन्त्रालय एवं विधि सचिव की सलाह पर विधि-मन्त्री कार्य करते हैं। और विधि-मन्त्रालय ही कानूनों में संशोधन करने या नये कानून बनाने का काम करता है। ऐसे में देश की दशा क्या होनी चाहिये? सहज ही कल्पना की जा सकती है।

लेकिन हमें इसी देश में रहना है और इसी देश की नीम हकीम पुलिस व्यवस्था से कानूनी संरक्षण भी पाना है। ऐसे में आम व्यक्ति क्या करे? इस विषय के सभी पहलुओं पर चिन्तन-मनन करने के उपरान्त निष्कर्ष रूप में संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि एक आम व्यक्ति को तीन मोर्चों पर लगातार कार्य करने की सख्त जरूरत है। तीनों मोर्चों पर काम करने से भी पहले लोगों को सक्रिय एवं अराजनैतिक समूहों के रूप में समर्पित होकर संगठित होने की जरूरत है, क्योंकि अकेले व्यक्ति की आवाज किसी को सुनाई नहीं देती है।

संगठित होकर आपको निम्न तीन मोर्चों पर लगातार एवं प्रतिदिन काम करने होंगे-सबसे पहले आपको अपने संगठन में जनबल एवं धनबन की ताकत बढाने के लिये प्रतिदिन लगातार काम करते रहना होगा। जिससे कि आपको कभी भी उद्देश्य के लिये शान्तिपूर्ण प्रदर्शन करने या आन्दोलन के लिये अपने ही सदस्यों की पर्याप्त संख्या, जिसे प्रशासन भीड कहता है, को जुटाने में मुश्किलातों का सामना नहीं करना पडे। इसी प्रकार से किसी भी कार्य को अंजाम देने के लिये संसाधनों की अत्यन्त जरूरत होती है, जिनके लिये धन की पर्याप्तता एवं लगातार उपलब्ध्ता बहुत जरूरी है। इसलिये नियमित रूप से और पारदर्शी स्त्रोतों से धन संग्रह करना भी अत्यन्त जरूरी है। जिससे की धन की कमी में किसी प्रकार की परेशानी का सामना नहीं करना पडे।

दूसरा, आपको अव्यावहारिक एवं गैर-कानूनी तथा आम व्यक्ति के हितों के विरुद्ध जारी कुव्यवस्था का न मात्र लगातार और हर मंच पर विरोध करना है, बल्कि उसमें सुधार के लिये सुझाव एवं समाधान भी पेश करने होंगे। जिससे कि केन्द्र एवं राज्यों की सरकारें आपकी पीडा एवं उपचार को समझ सकें। प्रस्तुत विषय में अपराधों की जाँच करने वाले प्रत्येक पुलिसजन, आईपीएस एवं आईएएस की भर्ती की पहली शर्त के रूप में कानून की उपाधि की अनिवार्यता को लागू करवाने के लिये लगातार मांग और जन-आन्दोलन करने की जरूरत है।

तीन, जब तक उपरोक्त परिवर्तन नहीं होते हैं, तब तक देश के वफादार नागरिक होने के नाते प्रचलित व्यवस्था तथा कानूनों का आदर और पालन करना हम सबका प्रथम धर्म और कानूनी कर्त्तव्य है। अतः प्रचलित कानून के अनुसार पुलिस को कानून का क्रियान्वयन करने के लिये बाध्य किया जावे। जिसके लिये हमें एक कारगर नीति पर कार्य करना होगा और इसे अंजाम तक पूर्ण धैय पूर्वक तक पहुंचाना होगा।

भारत में प्रचलित साक्ष्य अधिनियम के तहत एक प्रत्यक्षदर्शी साक्ष्यी की गवाही के आधार पर सुप्रीम कोर्ट किसी भी अपराधी को फांसी तक की सजा बहाल रख सकता है, तो फिर आप इस बात को क्यों भूल जाते हैं कि पुलिस द्वारा आम व्यक्ति के विरुद्ध अभद्रता किये जाने या गाली-गलोंच करने के लिये पुलिस के विरुद्ध वही कानून कैसे मूक रह सकता है। जरूरत है, कानून के समक्ष, कानूनी रूप से, यह सिद्ध करने की, कि किसी पुलिसजन ने आपके साथ अभद्रता एवं गाली-गलोंच की है!

इसके लिये अनेक प्रकार के टिप्स हो सकते हैं, जिन्हें हमें भ्रटाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास) के प्रशिक्षण शिविरों में कार्यकर्ताओं को बतलाते हैं। उन्हें सार्वजनिक करना उचित नहीं है। लेकिन एक तरीका पाठकों के हित में सामने प्रस्तुत करना जरूरी है। लेकिन सबसे पहले आपको उक्त विवेचन के प्रकाश में यह ध्यान में रखना होगा कि पुलिस को नीम हकीमी कानूनी उपचार करने का लाईसेंस सरकार द्वारा दिया गया है। 

यही नहीं पुलिस राजनैतिक दबावों में काम करती है। अधिक मुकदमें दर्ज होने पर थाने के प्रभारी से उच्च  पुलिस अधिकारी सवाल जवाब करते हैं। कहीं भी अपराधियों द्वारा बारदात करने पर पुलिस को ही अकर्मण्यता का दोषी माना जाकर प्रचारित एवं भ्रटाचार के मामले में पुलिस को सर्वाधिक बदनाम किया जाता है, बेशक वातानुकूलित कक्षों में विराजमान अन्य अनेक सफेदपोश उच्चाधिकारी कितने ही अधिक भ्रट क्यों न हों? इन हालातों में पुलिस किस प्रकार की मानसिकता से गुजर रही होती है, इसे भी हमें हर समय समझकर याद रखना होगा।

इस पृठभूमि को ध्यान में रखते हुए जब भी पुलिस द्वारा अपना फर्ज निर्वाह करने में आनाकानी की जावे, अभद्रता या गाली-गलोंच की जावे या फरियादी का मुकदमा दर्ज करने से इनकार किया जावे तो सुसभ्य तरीके से समूह के रूप में पुलिस के समक्ष पेश हों और फरियादी की बात को फिर से थाना प्रभारी या उपलब्ध थाने के वरिठतम अधिकारी/निरीक्षक के समक्ष तथ्यों सहित पेश करें। बहुत अधिक सम्भावना है कि आपकी बात सुन ली जावेगी और मामला दर्ज करके पुलिस मामले पर जरूरी कानूनी कार्यवाही करेगी, क्योंकि पुलिस वाले भी समाज के हिस्से हैं। उनको वेतन इसी बात के लिये मिलता है, और इसी से उनके भी परिवार का पालन-पोषण  होता है। लेकिन यदि आपका वास्ता किसी दुष्ट प्रकृति के ऐसे व्यक्ति से पडे जो अपने फर्ज को भूलकर वर्दी के नशे में आपका तिरस्कार एवं अपमान करने का प्रयास करे, तो सबसे पहले तो इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज रहे आनन्द नारायण मुल्ला की बात को याद रखें, जो उन्होंने अपने एक निर्णय में लिखी है कि "पुलिस वर्दीधारी गुण्डों का गिरोह है।"

अतः चुपचाप थाने से बाहर आ जावें, क्योंकि वर्दीधारी गुण्डे आपके साथ कैसा भी दुर्व्यवहार कर सकते हैं। बाहर आकर फरियादी की ओर से सारी घटना की रिपोर्ट फिर से सम्बन्धित पुलिस अधीक्षक के नाम बनायी जावे, जिसमें उल्लेख किया जावे कि उपस्थित थाना प्रभारी द्वारा रिपोर्ट लिखने से इनकार करने एवं फरियादी के साथ अभद्रता या गाली-गलोंच (जो भी सच्चाई हो वही लिखें) से पेश आने के कारण दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 154 (3) के तहत यह रिपोर्ट पुलिस अधीक्षक को प्रस्तुत करने की मजबूरी है।

याद रहे कि इस रिपोर्ट के साथ आपके समूह के किन्हीं दो समझदार, विश्वसनीय, परिपक्व एवं निर्भीक लोगों को थाने में हुई घटना का प्रत्यक्षदर्शी गवाह बनाया जावे और इन दोनों गवाहों के पुलिस अधीक्षक के नाम बनायी गयी रिपोर्ट पर हस्ताक्षर करवाये जावें। रिपोर्ट के तथ्यों के समर्थन में फरियादी एवं दोनों गवाहों की ओर से 10-10 रुपये के नॉन-ज्यूडिशियल स्टॉम्प पेपर पर,शपथ-पत्र बनवाकर रिपोर्ट के साथ संलग्र की जावे, जिनका ब्यौरा रिपोर्ट में दिया जावे।

समस्त विवरण रिपोर्ट आदि की फोटो कॉपी अपने पास अवश्य रखें। रिपोर्ट के अन्त में साफ शब्दों में लिखा जावे कि फरियादी के मामले की रिपोर्ट दर्ज करवाने के साथ-साथ थाने में अभद्रता करने के लिये दोषी लोगों (थाने में जाते समय पुलिस वालों की वर्दी पर लगी नेम प्लेट पर नाम पढ लें और यदि किसी ने नेम प्लेट नहीं लगा रखी हो तो उसका चेहरा, बनावट, रंग, उम्र आदि का उल्लेख पुलिस अधीक्षक को लिखी रिपोर्ट में करें) के विरुद्ध भी एफआईआर दर्ज की जावे। अन्त में पुलिस अधीक्षक को लिखें के यदि उनकी रिपोर्ट दर्ज कर कानूनी उपचार उपलब्ध नहीं करवाये गये तो फरियादी को विवश होकर मामला न्यायालय में पेश करना पडेगा।

यदि आप जिला मुख्यालय पर रहते हों तो 4-5 समझदार लोग समूह के रूप में ही पुलिस अधीक्षक से मिलकर रिपोर्ट पेश करें एवं रिपोर्ट की पावती अवश्य ही प्राप्त कर लें। अन्यथा फैक्स या रजिस्टर्ड-एडी के जरिये अपनी रिपार्ट भेजें। रिपार्ट में फरियादी का फोन एवं मोबाइल नम्बर अवश्य लिखें। पुलिस अधीक्षक को फोन/मोबाइल पर भी सम्पर्क करें और 4-5 दिन तक इन्तजार करें। यदि 4-5 दिन में कोई कार्यवाही नहीं हो तो पहले फोन पर पुलिस अधीक्षक से बात करें|

यदि कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिले तो शपथ-पत्र की फोटो प्रति एवं फरियादी की रिपोर्ट सहित मामले को किसी तटस्थ, समझदार एवं अनुभवी वकील के माध्यम से स्थानीय कोर्ट में पेश करें, जिसमें थाना प्रभारी के साथ-साथ पुलिस अधीक्षक को कानूनी कार्यवाही नहीं करने के लिये आरोपी ठहराकर पार्टी बनाया जावे। साथ ही फिर से फरियादी एवं दोनों गवाहों के नये शपथ-पत्र कोर्ट में पेश करने को वकील से कहें। हो सके तो फरियादी एवं दोनों गवाहों के बयान दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 164 के तहत कोर्ट के समक्ष दर्ज करवा दिये जावें। ताकि जाँच के दौरान गवाहों के बयानों को नकारे जाने की कोई सम्भावना नहीं रहें।

उक्त वर्णित तीन मार्चों पर की जाने वाली उपरोक्त समस्त कार्यवाही में लोगों का गवाह के रूप में सहयोग व समर्थन तथा धन की जरूरत होगी। साथ ही साथ भाग-दौड में मानसिक सम्बल की भी जरूरत होती है, जिसके लिये हर कोई साधारण व अकेला व्यक्ति सक्षम एवं समर्थ नहीं हो सकता है। इसलिये हमने समूह के रूप में संगठित होने की बात पर जोर दिया है और संगठन भी ऐसा हो, जिसमें जनबल एवं धनबल की मजबूत ताकत हो। ऐसे ही लक्ष्यों को पाने की लिये "भ्रटाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान" की स्थापना की गयी है।

लेकिन मात्र  इसकी सदस्यता ग्रहण करने से कुछ नहीं हो सकता। आपको सदस्यता ग्रहण करने के बाद राष्ट्रीय  स्तर पर और स्थानीय स्तर पर इस संस्थान के मंच पर लगातार जनबल एवं धनबल को बढाते रहना होगा। अन्यथा केवल सदस्यता ग्रहण करने से कुछ नहीं होगा। फिर भी याद रहे कि किसी भी कार्य की शुरुआत पहले कदम से ही होती है। जो आपने सदस्य बनकर उठा लिया है। अगले कदम के लिये प्रयास करें और धैर्य रखें। किसी भी पेड में फल लगने में समय लगता है और फल लगने तक धैर्य के साथ-साथ पेड को सींचना तो होता ही है, उसे संरक्षित भी रखना पडता है।

क्या आप "भ्रटाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान" नाम के इस पेड को धैर्यपूर्वक, सींचने, संरक्षित रखने और फलते-फूलते देखने के लिये दृढप्रतिज्ञ और प्रतिबद्ध होकर कार्य करने को तत्पर हैं? यदि हाँ तो आप केवल पुलिस से ही नहीं, हर प्रकार के अन्याय से निपट सकने में सक्षम बन सकते हैं। तो फिर विलम्ब किस बात का शुरू करें-आज, अभी और तत्काल। हम सदैव से कहते रहे हैं कि-एक साथ आना शुरूआत है, एक साथ रहना प्रगति है और एक साथ काम करना सफलता है। "भ्रटाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान" के 3770 (यह लेख लिखे जाने के समय) सदस्य यदि उपरोक्त बताये अनुसार एकजुट हो सकें तो कोई कारण नहीं कि उनकी बात नहीं सुनी जावे और उनके अधिकारों का हनन करने की कोई हिमाकत करके कानून की सजा पाने से बच सके। एक बार दिल से शुरुआत तो करें। 

बास के राट्रीय अध्यक्ष डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश' का सदस्यों के नाम पाक्षिक संदेश।
(जयपुर से प्रकाशित पाक्षिक समाचार-पत्र प्रेसपालिका के 16 से 30 सितम्बर, 09 के अंक में प्रकाशित)

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